26 अगस्त 2023 को मुजफ्फरनगर के एक निजी स्कूल का एक वीडियो वायरल होने लगा. वीडियो में टीचर तृप्ता त्यागी बच्चों को अपने मुसलमान सहपाठी को पीटने के लिए उकसा रहीं थीं. शिक्षक दिवस के दो दिन पहले भी ऐसी एक घटना कर्नाटक की राजधानी में भी सामने आई.  बेंगलुरू में एक सरकारी स्कूल की टीचर ने दो विद्यार्थियों से चिल्लाते हुए कहा कि "तुम पाकिस्तान चले जाओ, ये हिंदुओं का देश है." 

दूसरी तरफ इस साल कोटा शहर में औसतन हर महीने करीब तीन बच्चों ने आत्महत्या की है. देश में हर साल बोर्ड परीक्षा के नतीजे आने के बाद छात्रों की आत्महत्या से जुड़ी खबरें सामने आती रहती हैं. कभी छात्र नंबरों के दबाव में अपनी जान लेते हैं तो कभी रैगिंग जैसे अपराध कैंपस से खत्म नहीं होते हैं.

भारत जैसे विविधता भरे देश में टीचर होना आसान नहीं है. कई राज्यों में सरकारी अध्यापक आए दिन अपने लटके वेतन के लिए प्रदर्शन करते रहते हैं. हाल की यूनेस्को की रिपोर्ट कहती है कि भारत में करीब 1,20,000 ऐसे स्कूल हैं जिनमें सिर्फ एक ही टीचर नियुक्त है. इसी टीचर पर सभी कक्षाओं और सभी विषयों को पढ़ाने की जिम्मेदारी है. मिड डे मील जैसे कार्यक्रमों के कारण टीचरों पर दिन के भोजन से जुड़ी जिम्मेदारी भी आती हैं. देश के ग्रामीण इलाकों में 89 फीसदी स्कूल एकल शिक्षक वाले हैं.

शिक्षकों को लेकर सरकार का रवैया

देश में अध्यापकों की नियुक्ति एक बहुत बड़ा मुद्दा है. कई राज्यों में ज्यादातर शिक्षक कॉन्ट्रैक्ट पर काम करते हैं. कहीं उन्हें शिक्षा मित्र कहते हैं तो कहीं कुछ और. ठेके पर और तुलनात्मक रूप से बेहद कम वेतन में काम करने वाले ये टीचर, कई साल तक स्थायी नियुक्ति के लिए आवाज उठाते रहते हैं. यूनेस्को की रिपोर्ट कहती है कि 49% सरकारी स्कूल के अध्यापक तीन साल या उस से भी कम के कॉन्ट्रैक्ट पर रखे जाते हैं.

अगस्त 2023 में भारत सरकार ने खुद राज्य सभा में बताया कि 2022-23 में सरकारी स्कूलों  में करीब 7,47,565 शिक्षकों के पद खाली है. रिक्त पद पहली और आठवी कक्षा के बीच पढ़ाने वाले गुरुजनों से जुड़े हैं. यह डाटा 2020-21 में भी 8,37,592 था. इसका मतलब है कि 7.9 फीसदी बेरोजगारी दर वाले देश में बीते दो साल में सिर्फ 90,027 पदों पर नियुक्ति हुई.

समाज में शिक्षकों की भूमिका

प्रोफेसर अरुण कुमार की किताब Indian Economy since Independence: Persisting Colonial Disruption में सरकार और शिक्षकों की बात की है. उनका कहना है कि बढ़ती कुप्रथाओं को एक बहाने के रूप में इस्तेमाल करते हुए, शिक्षक भी ऐसी नीतियों का समर्थन करने लगे हैं जो शिक्षण के लिए पूरी तरह से अनुपयुक्त हैं. शिक्षकों को अनुशासित करने और परंपरागत ढांचे में डालने के लिए नीतियां लाई गई हैं. जैसे, नई एपीआई (शैक्षणिक प्रदर्शन संकेतक) प्रणाली जिस में शिक्षकों को बच्चों से अंक मिलते हैं और उसके आधार पर उनकी तरक्की अर्जित की जाती है. इससे शिक्षकों का ध्यान ज्ञान की खोज या उसे छात्रों को प्रदान करने से हटाकर व्यवस्था में बांध दिया गया है.

शिक्षकों की ओर से सांप्रदायिक बातें जताती है कि टीचर भी इसी शिक्षा व्यवस्था की एक उपज हैं. मेरिट लिस्ट के दीवाने देश में शिक्षक कम संसाधनों के साथ कोर्स खत्म करने और रट्टा लगवा देने को ही अपनी जिम्मेदारी मानते हैं. B.Ed और M.Ed के कोर्स आज भी देश में उभरते अध्यापकों को वही ट्रेनिंग दे रहे हैं जो कई साल पहले दे रहे थे. बदलाव के लिए जरूरी है कि समावेशी और सहानुभूति की शिक्षा अध्यापकों को दी जाए. इसे सामाजिक और भावनात्मक शिक्षा भी कहते हैं.सामाजिक और भावनात्मक शिक्षा (एसईएल) के तहत शिक्षकों के जरिये बच्चों में एक व्यक्तिगत पहचान, भावनाओं को व्यक्त करने की क्षमताएं और दूसरों के प्रति सहानुभूति महसूस करने के गुण सिखाये जाते हैं. पढ़ाई में धर्म और धार्मिक प्रतीकों को मुद्दा बनाने के बजाए, भेदभाव के विषयों पर बात की जाती है और इस फर्क को मिटाया जाता है. एक इंटरसेक्शनल लेंस के जरिए शिक्षक अपने और बच्चों के अनुभवों की पुष्टि करते हैं. बच्चों के नजरिए देखें तो कई मसले सहानुभूति से बदले जा सकते हैं.

रोहित कुमार एक विशेषज्ञ हैं और स्कूलों में इन बातों पर वर्कशॉप आयोजित करते हैं. उनका कहना है कि "दो तरह से पढ़ाई होती है. एक होता है शिक्षा बोर्ड का पाठ्यक्रम और दूसरा होता है अप्रत्यक्ष पाठ्यक्रम. बच्चे अपने टीचरों के व्यवहार और क्रिया कलापों से भी काफी कुछ सीखते हैं. इन्हीं पर ध्यान आकर्षित करने के लिए एसईएल है. इसके जरिये शिक्षकों को एक साल में दस चीजें दीं जाती है जैसे बच्चे आपस में बिना झगड़े विवाद कैसे सुलझाएं, दूसरों के प्रति सहानुभूति कैसे जताएं. जरूरी नहीं कि शिक्षकों के ऊपर यह थोपा जाए. उन्हें खुद भी ये चीजें समझनी होंगी.”

शिक्षक बनना, क्या यह सिर्फ एक रोजगार है या कहीं बड़ी जिम्मेदारी. इस सवाल का स्पष्ट मूल्यांकन भी जरूरी है.

भारत की स्कूली शिक्षा का कैसा है हाल

केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने साल 2018-19 और 2019-20 के लिए जिलावार परफॉर्मेंस ग्रेडिंग इंडेक्स पर पहली रिपोर्ट जारी की है. यह जिला स्तर पर स्कूली शिक्षा प्रणाली पर रोशनी डालती है.

क्या है रिपोर्ट

केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने 2018-19 और 2019-20 के लिए जिला निष्पादन ग्रेडिंग सूचकांक (पीजीआई-डी) रिपोर्ट जारी की है. यह जिला स्तर पर स्कूल शिक्षा का आकलन करती है. जिला आधारित स्कूल परफॉर्मेंस ग्रेडिंग इंडेक्स के तहत एक इंडेक्स बनाकर स्कूली शिक्षा प्रणाली के प्रदर्शन का व्यापक विश्लेषण के आधार पर मूल्यांकन किया गया.

तस्वीर: Satyajit Shaw/DW

राजस्थान अव्वल

जिला निष्पादन ग्रेडिंग सूचकांक (पीजीआई-डी) में राजस्थान के सीकर जिले ने सबसे अच्छा प्रदर्शन किया है, जिसके बाद झुंझुनू और जयपुर जिले का नंबर है. रिपोर्ट में इन तीन जिलों ने 100 के स्केल पर 81-90 अंक हासिल करके 'उत्कर्ष' ग्रेड हासिल किया. इस रिपोर्ट के मुताबिक विभिन्न श्रेणियों में राजस्थान के तीन जिले स्कूली शिक्षा में प्रदर्शन में अग्रणी है.

उच्चतम श्रेणी में एक भी जिला नहीं

जहां राजस्थान के तीन जिलों ने उत्कर्ष श्रेणी में जगह हासिल की है वहीं उच्चतम श्रेणी में देश के किसी भी जिले ने जगह नहीं बनाई है. 90 प्रतिशत से अधिक अंक हासिल करने वाले जिलों के लिए उच्चतम ग्रेड ‘दक्ष’ दिया जाता है.

तस्वीर: Satyajit Shaw/DW

Indien | Schulöffnungen in KolkataIndien | Schulöffnungen in Kolkata

डिजिटल लर्निंग में स्कूलों की हालत खराब

2019-20 के लिए जिलों के पीजीआई-डी से पता चलता है कि देश भर के स्कूलों ने डिजिटल लर्निंग की श्रेणी के तहत खराब प्रदर्शन किया. जिसने इंडेक्स बनाते समय विचार किए गए अन्य मापदंडों की तुलना में सबसे कम स्कोर किया.

इंडेक्स में 180 जिलों ने डिजिटल लर्निंग पर 10 प्रतिशत से कम स्कोर किया है. 146 जिलों ने 11 से 20 प्रतिशत, जबकि 125 जिलों ने 21 से 30 प्रतिशत के बीच अंक हासिल किया.

शिक्षा मंत्रालय की यह रिपोर्ट डिजिटल लर्निंग के क्षेत्र में साफ तौर पर ग्रामीण-शहरी विभाजन को भी रेखांकित करती है. उदाहरण के लिए चंडीगढ़ और दिल्ली जैसे शहरों के जिलों ने 50 में से 25 से 35 के बीच अंक हासिल किए, जबकि बिहार के अररिया और किशनगंज शहरों ने 2 से कम स्कोर किया.

न्यूज़ सोर्स : ipm